बयान देकर विवादों में फंसे सुकांत मजूमदार, तृणमूल ने की माफी की मांग
कोलकाता, 21 जून। बंगाल की राजनीति में हाल के वर्षों में जिस तरह की भाषा और शब्दावली का उपयोग हो रहा है, वह लोकतांत्रिक शालीनता पर गंभीर प्रश्न खड़े कर रहा है। जहां एक ओर राजनीतिक दलों के बीच कटु आलोचना हमेशा से रही है, वहीं अब यह आलोचना अक्सर व्यक्तिगत हमलों और गाली-गलौज जैसी भाषा में तब्दील होती जा रही है। तृणमूल कांग्रेस और भाजपा दोनों प्रमुख दलों के नेताओं के बीच बयानबाज़ी अब मर्यादाओं की सीमाएं पार कर चुकी है। चाहे विधानसभा के भीतर हो या चुनावी मंच पर आरोप-प्रत्यारोप की भाषा में अब संयम की कमी साफ देखी जा सकती है।
केंद्रीय शिक्षा राज्यमंत्री, दो बार के सांसद और भाजपा के पश्चिम बंगाल प्रदेश अध्यक्ष सुकांत मजूमदार एक बार फिर अपने बयान को लेकर विवादों में घिर गए हैं। इस बार उन्होंने राज्य के कानून की तुलना कोलकाता के विख्यात रेड लाइट एरिया सोनागाछी की यौनकर्मियों से कर दी, जिससे राजनीतिक गलियारों में तीखी प्रतिक्रिया देखने को मिल रही है।
सुकांत मजूमदार ने कथित तौर पर कहा कि राज्य का कानून अब सोनागाछी की सेक्स वर्करों की तरह हो गया है जिसे जब जो चाहिए, वैसा इस्तेमाल कर लेता है। उनके इस बयान को असंवेदनशील, अपमानजनक और अशोभनीय बताते हुए तृणमूल कांग्रेस ने कड़ी आपत्ति जताई है। सत्ताधारी तृणमूल के प्रवक्ता कुणाल घोष ने इस टिप्पणी को महिलाओं के खिलाफ अपमानजनक बताते हुए तुरंत माफी की मांग की है। पार्टी नेताओं का कहना है कि एक केंद्रीय मंत्री और प्रदेश अध्यक्ष को इस तरह की भाषा शोभा नहीं देती और इससे समाज में गलत संदेश जाता है।
राजनीतिक जानकारों का मानना है कि ऐसे बयान न केवल सियासी मर्यादा को ठेस पहुंचाते हैं, बल्कि संवेदनशील तबकों खासकर सेक्स वर्कर्स के प्रति भी गहरी असंवेदनशीलता को दर्शाते हैं। चुनाव बाद की बंगाल राजनीति में जहां पहले से ही बयानबाज़ी तेज़ है, ऐसे वक्त में यह टिप्पणी भाजपा के लिए असहज स्थिति पैदा कर सकती है। हालांकि भाजपा की ओर से अभी तक इस बयान पर कोई आधिकारिक सफाई नहीं आई है, लेकिन राजनीतिक दबाव बढऩे के बाद पार्टी को स्थिति स्पष्ट करनी पड़ सकती है। देखना यह है कि सुकांत मजूमदार अपने बयान पर कायम रहते हैं या माफी मांग कर विवाद को शांत करने की कोशिश करते हैं। बहरहाल, यह बयान बंगाल की सियासी गरमी को और बढ़ा चुका है और यह तय है कि अगले कुछ दिनों तक यह मुद्दा राजनीतिक बहस का केंद्र बना रहेगा। लोकतंत्र में असहमति ज़रूरी है, लेकिन उसमें गरिमा भी बनी रहनी चाहिए। बंगाल की राजनीति को अगर वास्तव में जनता के विश्वास को कायम रखना है, तो नेताओं को भाषा पर संयम और शब्दों पर मर्यादा का पालन करना ही होगा। वरना आने वाले दिनों में जनता ही इस गिरते हुए स्तर का सबसे सख्त जवाब दे सकती है चुनाव के ज़रिए।